दुनिया के बहुत से समाजों और देशों में माता-पिता के कार्यों
का बँटवारा इस सोच पर आधारित है कि पुरुष घर की आर्थिक
इकाई है,अतः वह घरेलु कार्य से मुक्त है। ध्यान से सोचने
की जरुरत है कि क्या केवल पुरुष ही घर के आर्थिक संचालन
में जुटा है? क्या स्त्रियों की आर्थिक क्षमता शून्य है?गाँव-देहात
में कृषि कार्य और मजदूरी में संलग्न स्त्रियाँ परिवार की आर्थिक
जिम्मेदारियां उठाती है,ऐसे में क्या उन्हें घरेलु कार्यों से मुक्त रखा
जाता है?नहीं,बिल्कुल नहीं,क्यों कि घर संभालना तो 'स्त्री-धर्म' है।
सामाजिक मान्यताओं का ताना-बाना कुछ इस तरह बुना गया है
कि आधी आबादी दोयम दर्जे का जीवन जी रही है।अफ़सोस यही
है कि बहुत सी महिलायों को यही नहीं पता कि उनके साथ क्या
गलत हो रहा है?शासक और शासित का वर्ग भेद साफ़ नजर
आता है।शिक्षित महिलायों की स्थिति तो और भी ख़राब है,यदि
वे कामकाजी हैं तो दोहरी जिम्मेदारियों का निर्वाह करना है,
अन्यथा जीवन भर चूल्हे-चौके की परिधि में रहते हुए
'कभी न चूँ करने वाली आदर्श भारतीय नारी' की भूमिका
निभानी है।बहुत कम ऐसे ,समझदार संवेदनशील पति हैं
जो आवश्यकता होने पर अपने पुरुषोचित अहम् को परे
रख घर के काम में हाथ बंटाते है। महिलायों द्वारा मज़बूरी
वश दोहरी जिम्मेदारी को ढोहना, एक तरह का शोषण है,
एक ऐसा शोषण जो हर रोज शांतिपूर्वक लाखों भारतीय
घरों में होता है।बहुत सी महिलाएं संस्कारों की घुट्टी वश,
मौन रहती हैं,क्योंकि'विवाह'नामक पवित्र संस्था को बचाए
रखने के लिए ऐसा करना जरुरी है।पर सारे संस्कारों,दायित्वों,
कर्तव्यों,जिम्मेदारियोंऔर मर्यादाओं का बोझ महिलायों के
सिर पर क्यों?शायद इसलिए क्यों कि पुरुषों का काम है,
सामाजिक नियम बनाना,और महिलायों का काम है उन
नियमों पर चलने का समर्पित प्रयास करना।यहाँ प्रश्नों के
लिए कोई स्थान नहीं है क्यों कि समर्पित प्रजा शासकों से
प्रश्न नहीं पूछा करती। जाहिर है 'आधी दुनिया' के यह प्रश्न
सदियों से अनुत्तरित हैं।
का बँटवारा इस सोच पर आधारित है कि पुरुष घर की आर्थिक
इकाई है,अतः वह घरेलु कार्य से मुक्त है। ध्यान से सोचने
की जरुरत है कि क्या केवल पुरुष ही घर के आर्थिक संचालन
में जुटा है? क्या स्त्रियों की आर्थिक क्षमता शून्य है?गाँव-देहात
में कृषि कार्य और मजदूरी में संलग्न स्त्रियाँ परिवार की आर्थिक
जिम्मेदारियां उठाती है,ऐसे में क्या उन्हें घरेलु कार्यों से मुक्त रखा
जाता है?नहीं,बिल्कुल नहीं,क्यों कि घर संभालना तो 'स्त्री-धर्म' है।
सामाजिक मान्यताओं का ताना-बाना कुछ इस तरह बुना गया है
कि आधी आबादी दोयम दर्जे का जीवन जी रही है।अफ़सोस यही
है कि बहुत सी महिलायों को यही नहीं पता कि उनके साथ क्या
गलत हो रहा है?शासक और शासित का वर्ग भेद साफ़ नजर
आता है।शिक्षित महिलायों की स्थिति तो और भी ख़राब है,यदि
वे कामकाजी हैं तो दोहरी जिम्मेदारियों का निर्वाह करना है,
अन्यथा जीवन भर चूल्हे-चौके की परिधि में रहते हुए
'कभी न चूँ करने वाली आदर्श भारतीय नारी' की भूमिका
निभानी है।बहुत कम ऐसे ,समझदार संवेदनशील पति हैं
जो आवश्यकता होने पर अपने पुरुषोचित अहम् को परे
रख घर के काम में हाथ बंटाते है। महिलायों द्वारा मज़बूरी
वश दोहरी जिम्मेदारी को ढोहना, एक तरह का शोषण है,
एक ऐसा शोषण जो हर रोज शांतिपूर्वक लाखों भारतीय
घरों में होता है।बहुत सी महिलाएं संस्कारों की घुट्टी वश,
मौन रहती हैं,क्योंकि'विवाह'नामक पवित्र संस्था को बचाए
रखने के लिए ऐसा करना जरुरी है।पर सारे संस्कारों,दायित्वों,
कर्तव्यों,जिम्मेदारियोंऔर मर्यादाओं का बोझ महिलायों के
सिर पर क्यों?शायद इसलिए क्यों कि पुरुषों का काम है,
सामाजिक नियम बनाना,और महिलायों का काम है उन
नियमों पर चलने का समर्पित प्रयास करना।यहाँ प्रश्नों के
लिए कोई स्थान नहीं है क्यों कि समर्पित प्रजा शासकों से
प्रश्न नहीं पूछा करती। जाहिर है 'आधी दुनिया' के यह प्रश्न
सदियों से अनुत्तरित हैं।