संसदीय लोकतंत्र के राजनीतिज्ञों के समक्ष यह यक्ष
प्रश्न है कि अन्ना इतने लोकप्रिय क्यों,जबकि जन -प्रतिनिधि
प्रश्न है कि अन्ना इतने लोकप्रिय क्यों,जबकि जन -प्रतिनिधि
तो वे स्वयं हैं?यह क्या कम आश्चर्य की बात है कि सड़कों
पर उतरे हजारों लोगों के मध्य राजनेतिक वर्ग की नुमायन्दगीकरने वालों की संख्या न के बराबर है।विगत एक दशक से
विभिन्न राजनेतिक दल योग्य कार्यकर्ताओं की कमी से जूझ
रहे हैं।आम व्यक्ति राजनीति को सेवा नहीं,वरन सत्ता का माध्यम
भर मानता है।खुद की समस्याएँ उसे असाध्य रोग की भांति नजर
आती हैं।यह समाज में राजनीति व राजनेतिक वर्ग के प्रति
उभरी अरुचि का लक्षण था,जो अब खुलकर प्रकट हुआ है।मैं इस
नकारात्मक रुझान को सफल लोकतंत्र के अस्तित्व के लिए शुभ नहीं मानता। 'मेरा नेता चोर है' यह चिल्लाने वालों
को आत्मावलोकन करने की जरुरत है की स्वयं उनकी कमीज
कितनी सफ़ेद है?क्या राजनेतिक वर्ग रहित लोकतंत्र की कल्पना
भी संभव है? समय आत्म -मंथन का है।कहीं न कहीं जन प्रतिनिधि
भी आम जन की आवाज नहींसुन/ बन पाए।प्रश्न गहरा है समाधान
संभवतः 'चुनाव सुधार' है।
संभवतः 'चुनाव सुधार' है।