इक प्रश्न???
पश्चिमी राजस्थान अपने आप में भौगोलिक-सांस्कृतिक विविधता और अदब-तहजीब,खान पान,तीज त्यौहार,रीति-रिवाज की एक अनुपम विरासत समेटे है।मैं इस सरजमीं का जबरदस्त प्रशंसक हूँ।यहाँ गांव-गांव में समृद्ध-संस्कारवान और खुले दिल वाली अनेकों विभूतियाँ विराजमान हैं।ये वो लोग हैं जो व्यवसाय की जरूरतों के चलते अन्य राज्यों में निवासरत हैं पर उनके दिलों में अपना गांव और अपनी मिटटी की खुशबु महकती है। सादगी इतनी कि सर्व सम्पन्न होने के बावजूद बातचीत-व्यवहार में कहीं कोई हल्कापन नहीं।इतने विनम्र लोग भी देखे जो स्कूल में आने के बाद प्रधानाध्यापक कक्ष में प्रवेश करने से पहले अपनी जूतियाँ बाहर उतारते हैं।
पर ग्रामीण समाज के इन प्रतिष्ठित-संपन्न,सम्मानीय लोगों में इक बात बड़ी कॉमन है कि ये लोग स्कूल के लिए भले ही लाखों ₹ का योगदान सहर्ष देते हों पर स्वयं कुछ खास पढ़े-लिखे नहीं होते।बमुश्किल 8 वीं,10 वीं पास किये हुए हमारे ये दानदाता न केवल जातिगत समाज के लिए बल्कि ग्रामीण समुदाय के लिए एक रोल मॉडल होते हैं।मेरा प्रश्न यहीं से शुरू होता है कि किताबी रूप से अल्प शिक्षित होने के बावजूद जब हमारे दानदाता सफल-कामयाब जीवन जी रहे हैं तो ऐसे में आम विद्यार्थी को शिक्षा के महत्त्व या जीवन उपयोग के बारे में कैसे प्रेरित करें?हालांकि हमारा काम हमे बेहतरीन ढंग से अंजाम देना है पर कैसे वो ज्यादा व्यवहारिक और जीवन उपयोगी लगे इस पर सम्वाद आवश्यक है।
पुनःश्च-मेरे एक अजीज मित्र और युवा प्रधानाध्यापक ने जब अपनी स्कूल की प्रार्थना सभा में पढ़ाई को लेकर लम्बी चौड़ी नसीहतें दीं तो एक साथी शिक्षक ने उन्हें अकेले में कहा कि"सर इन बच्चों को पता है कि उन्हें क्या करना है..90% बच्चे 10 वीं की परीक्षा के बाद पढ़ाई छोड़ कर दिसावर(अन्यत्र प्रवास) चले जायेंगे और इन 5-7 साल बाद इन बच्चों में से कई स्कूल के दानदाता होंगे।