शनिवार, 14 नवंबर 2015

इक प्रश्न???
पश्चिमी राजस्थान अपने आप में भौगोलिक-सांस्कृतिक विविधता और अदब-तहजीब,खान पान,तीज त्यौहार,रीति-रिवाज की एक अनुपम विरासत समेटे है।मैं इस सरजमीं का जबरदस्त प्रशंसक हूँ।यहाँ गांव-गांव में समृद्ध-संस्कारवान और खुले दिल वाली अनेकों विभूतियाँ विराजमान हैं।ये वो लोग हैं जो व्यवसाय की जरूरतों के चलते अन्य राज्यों में निवासरत हैं पर उनके दिलों में अपना गांव और अपनी मिटटी की खुशबु महकती है। सादगी इतनी कि सर्व सम्पन्न होने के बावजूद बातचीत-व्यवहार में कहीं कोई हल्कापन नहीं।इतने विनम्र लोग भी देखे जो स्कूल में आने के बाद प्रधानाध्यापक कक्ष में प्रवेश करने से पहले अपनी जूतियाँ बाहर उतारते हैं।
पर ग्रामीण समाज के इन प्रतिष्ठित-संपन्न,सम्मानीय लोगों में इक बात बड़ी कॉमन है कि ये लोग स्कूल के लिए भले ही लाखों ₹ का योगदान सहर्ष देते हों पर स्वयं कुछ खास पढ़े-लिखे नहीं होते।बमुश्किल 8 वीं,10 वीं पास किये हुए हमारे ये दानदाता न केवल जातिगत समाज के लिए बल्कि ग्रामीण समुदाय के लिए एक रोल मॉडल होते हैं।मेरा प्रश्न यहीं से शुरू होता है कि किताबी रूप से अल्प शिक्षित होने के बावजूद जब हमारे दानदाता सफल-कामयाब जीवन जी रहे हैं तो ऐसे में आम विद्यार्थी को शिक्षा के महत्त्व या जीवन उपयोग के बारे में कैसे प्रेरित करें?हालांकि हमारा काम हमे बेहतरीन ढंग से अंजाम देना है पर कैसे वो ज्यादा व्यवहारिक और जीवन उपयोगी लगे इस पर सम्वाद आवश्यक है।
पुनःश्च-मेरे एक अजीज मित्र और युवा प्रधानाध्यापक ने जब अपनी स्कूल की प्रार्थना सभा में पढ़ाई को लेकर लम्बी चौड़ी नसीहतें दीं तो एक साथी शिक्षक ने उन्हें अकेले में कहा कि"सर इन बच्चों को पता है कि उन्हें क्या करना है..90% बच्चे 10 वीं की परीक्षा के बाद पढ़ाई छोड़ कर दिसावर(अन्यत्र प्रवास) चले जायेंगे और इन 5-7 साल बाद इन बच्चों में से कई स्कूल के दानदाता होंगे।

शनिवार, 12 नवंबर 2011

लघु कथा

1- कॉलोनी में शुद्ध देसी घी बेचने वाला आया,अपनी समझ और परख के अनुसार
घी की शुद्धता के प्रति आश्वस्त होकर उन्होंने भी ले लियाअफ़सोस 4 दिन बाद
घी ने अपनी असलियत उगल दी उन्होंने ऑफिस में बताया ' ईमानदारी का
जमाना ही नहीं है,क्या करें हमने वो घी रसोई से हटाकर पूजा-पाठ में प्रयुक्त
करना शुरू कर दिया है'
2-उन्होंने सब्जियां खरीदी,सब्जी वाली ने 1 नोट फटा हुआ कह कर 
लौटा दिया।पहले भी उस नोट को 'होशियारी पूर्वक' चलाये जाने का 
विफल प्रयास हो चुका था।हार मानकर उन्होंने वो नोट जेब में डाला 
और कहने लगे 'कोई बात नहीं यह नोट मंदिर में चडावे के काम आ 
जायेगा'
             मेरे मन में सैकड़ों विचार कुलबुलाने लगे.......                      

रविवार, 2 अक्तूबर 2011

'आधी दुनिया' के अनुत्तरित प्रश्न

दुनिया के बहुत से समाजों और देशों में माता-पिता के कार्यों
का बँटवारा इस सोच पर आधारित है कि पुरुष घर की आर्थिक
इकाई है,अतः वह घरेलु कार्य से मुक्त है। ध्यान से सोचने
की जरुरत है कि क्या केवल पुरुष ही घर के आर्थिक संचालन 
में जुटा है? क्या स्त्रियों की आर्थिक क्षमता शून्य है?गाँव-देहात
में कृषि कार्य और मजदूरी में संलग्न स्त्रियाँ परिवार की आर्थिक
जिम्मेदारियां उठाती है,ऐसे में क्या उन्हें घरेलु कार्यों से मुक्त रखा
जाता है?नहीं,बिल्कुल नहीं,क्यों कि घर संभालना तो 'स्त्री-धर्म' है
सामाजिक मान्यताओं का ताना-बाना कुछ इस तरह बुना गया है
कि आधी आबादी दोयम दर्जे का जीवन जी रही है।अफ़सोस यही
है कि  बहुत सी महिलायों को यही नहीं पता कि उनके साथ क्या
गलत हो रहा है?शासक और शासित का वर्ग भेद साफ़ नजर
आता है।शिक्षित महिलायों की स्थिति तो और भी ख़राब है,यदि
वे कामकाजी हैं तो दोहरी जिम्मेदारियों का निर्वाह करना है,
अन्यथा जीवन भर चूल्हे-चौके की परिधि में रहते हुए 
'कभी न चूँ करने वाली आदर्श भारतीय नारी' की भूमिका
निभानी है।बहुत कम ऐसे ,समझदार संवेदनशील पति हैं
जो आवश्यकता होने पर अपने पुरुषोचित अहम् को परे
रख घर के काम में हाथ बंटाते है।  महिलायों द्वारा मज़बूरी
वश दोहरी जिम्मेदारी को ढोहना, एक तरह का शोषण है,
एक ऐसा शोषण जो हर रोज शांतिपूर्वक लाखों भारतीय 
घरों में होता है।बहुत सी महिलाएं संस्कारों की घुट्टी वश,
मौन रहती हैं,क्योंकि'विवाह'नामक पवित्र संस्था को बचाए
रखने के लिए ऐसा करना जरुरी है।पर सारे संस्कारों,दायित्वों,
कर्तव्यों,जिम्मेदारियोंऔर मर्यादाओं का बोझ महिलायों के
सिर पर क्यों?शायद इसलिए क्यों कि पुरुषों का काम है, 
सामाजिक नियम बनाना,और महिलायों का काम है उन
नियमों पर चलने का समर्पित प्रयास करना।यहाँ प्रश्नों के 
लिए कोई स्थान नहीं है क्यों कि समर्पित प्रजा शासकों से 
प्रश्न नहीं पूछा करती जाहिर है 'आधी दुनिया' के ह प्रश्न 
सदियों से अनुत्तरित हैं।   

मंगलवार, 13 सितंबर 2011

वाद-विवाद प्रतियोगिता

 जिला स्तरीय वाद-विवाद प्रतियोगिता का विषय है-
'घर के दैनिक कामकाज में माता-पिता दोनों की भूमिका समान होनी चाहिए'
ब्लॉग जगत के माननीय लेखकों,पाठकों से आग्रह है कि यदि उपर्युक्त 
विषय आपको तनिक भी संवेदनशील प्रतीत हो तो अपनी मूल्यवान 
विवेचना,प्रतिक्रिया से लाभान्वित कर विचार-फलक को नवीन आयाम 
प्रदान करें।

बुधवार, 17 अगस्त 2011

एक दशक का उबाल


संसदीय लोकतंत्र  के राजनीतिज्ञों के समक्ष यह यक्ष
प्रश्न है कि अन्ना इतने लोकप्रिय क्यों,जबकि जन -प्रतिनिधि
तो वे स्वयं हैं?यह क्या कम आश्चर्य की बात है कि सड़कों
पर उतरे हजारों लोगों के मध्य राजनेतिक वर्ग की नुमायन्दगी
करने वालों की संख्या न के बराबर हैविगत एक दशक से
विभिन्न राजनेतिक दल योग्य कार्यकर्ताओं की कमी से जूझ
रहे हैं।आम व्यक्ति राजनीति को सेवा नहीं,वरन सत्ता का माध्यम 
भर मानता है।खुद की समस्याएँ उसे असाध्य रोग की भांति नजर
आती हैंयह समाज में  राजनीति व राजनेतिक वर्ग  के प्रति 
उभरी अरुचि का लक्षण था,जो अब खुलकर प्रकट हुआ है।मैं इस 
नकारात्मक रुझान को  सफल लोकतंत्र के अस्तित्व के लिए 
शुभ नहीं मानता 'मेरा नेता चोर है' यह चिल्लाने वालों
को आत्मावलोकन करने की जरुरत है की स्वयं उनकी कमीज 
कितनी सफ़ेद है?क्या राजनेतिक वर्ग रहित लोकतंत्र की कल्पना
भी संभव है? समय आत्म -मंथन का है।कहीं न कहीं जन प्रतिनिधि 
भी आम जन की आवाज नहींसुन/ बन पाए।प्रश्न गहरा है समाधान
संभवतः 'चुनाव सुधार' है 

शनिवार, 9 जुलाई 2011

Root of corruption goes to our present election
system which is in the grab of money &
muscle power.Day by day we see average or 
below average polling figures.Why people are
not intersted to cast their vote?Of course they
need to educate about their decisive role in 
democracy.Large number of voters do'nt find
any candidate suaitable for  becoming their
representative.There should be 'NONE OF
THE ABOVE' choice in E.V.M. Voters must 
have 'right to recall' for their corrupt,inactive 
representative Every political party should 
disclose their source of fund on regular basis 
Like govt.servant and panchayat/nagar palika 
representative,our assembly  and parliament
members should implement 'number of 
children rule' on themselves also.
       Transparency and sensitivity can make
democracy more beautiful. we have to make
these electoral reforms as soon as possible.
Only than election system would become 
clean & fair
(Picture with courtesy from Google & other internet sources)

रविवार, 26 जून 2011

जनता दरबार या लोक मिलन?

समाचार पत्रों तथा टी वी  चेनलों से अक्सर उच्च संवेधानिक पदों पर
आसीन व्यक्तियोंके "जनता दरबार" सम्बन्धी समाचारज्ञात 
होतें हैं|कुछ संदेह सा होता है की हमारी शासन व्यवस्था लोकतान्त्रिक है
या राजशाही?क्या इस प्रकार के अभिजात्य दंभ पूर्ण विशेषण"लोकतंत्र" को
 "छदमवेश में कुलीन तंत्र" घोषित करते हुए प्रतीत नहीं होते?   
हमारे प्रतिनिधियों  को "राजा" तथा आम जन को 
"दरबारी" कहा/माने जाना कहाँ तक उचित है?
विचार मंथन हेतु आपकी प्रतिकियाओं का स्वागत है|    
  

गुरुवार, 23 जून 2011

जन लोकपाल विधेयक पर राजनेताओं के रुख को लेकर एक टिप्पणी

                   कोई  हसीन सा  नुक्ता  निकाल  देता है   
                   अजीब  शख्स  है  बातों में  टाल देता  है
                 जो  मछलियों  को  तैरना  सिखाता  है 'निकह'
                   वही तो  है  जो  मछेरों को  जाल देता  है
                                                नसीम निकहत 

सोमवार, 21 जून 2010

Re entry

after 15 months gap,m back now.In this period i was preparing for school lecturer (History)exam.Now interview is over and result will be declared on about mid july.Let`s see what happen?
                "बना  के  फकीरों  का  भेस  हम `ग़ालिब'
                तमाशा-ए-अहले करम  देखते  हैं"..
aaur han i pray to GOD about giving complete justice to`Bhopal gas victims`...

रविवार, 22 फ़रवरी 2009

Crisis of news

These days print and electronic media are suffering with crisis of news.U Can see d degradation of news headlines & content everywhere.I think, it is happening due to lack of sensitivity in present journalism.Like other professionals a journalist,also want to earn name & fame at earliest way.Thus he forget his social responsibility.Cut throat race of T.R.P. & circulation is making d scenerio worst.News channel r showing JADU-TONA in prime time,while news papers r discussing on Aishwarya'S marriege.Should it b our matter of concern? Level of local journalism is pity also.V need to think about it seriously.It;s our moral duty to make an environment against such kind of news making.News with proper concern on grass root problems can become a RAMBAAN for for upliftment of deprived class of our society.